सना करें औ सलामियाँ हों , है सद्र शर्मिंदगी कहीं कुछ ?
फ़तह का सामाँ दिखा रहे हों, के टाटे-पैबंदगी सभी कुछ !!
--- समीर 'लाल 'और 'बवाल
शब्दार्थ :-
सना = स्तुति, वन्दना, प्रशंसा
सलामियाँ = गणतंत्र दिवस पर होने वाली परेड
सद्र = राष्ट्रपति और तमाम सियासतदाँ
फ़तह का सामाँ = हथियार, शस्त्र, विमान, टैंक, तोपें, मिसाइलें, असलहा
टाटे पैबंदगी = मख़्मल में टाट का पैबंद लगाना
भावार्थ :- सदियों से चले आ रहे आतंकवाद और तिस पर हालिया बम्बई (हमें मुम्बई कहना पसंद नहीं) की घटनाओं के बाद कुछ भी न कर पाने के बाद तो, गणतंत्र दिवस पर हमें तो बड़ी शर्म आ रही है परेड करते हुए। कैसे कहें, पराजित हिंद को जयहिंद ? बतलाइए ?
सोमवार, 26 जनवरी 2009
रविवार, 18 जनवरी 2009
फ़ुरसतों में .............. (बवाल)
ज़रा सा इनकी तरफ़ तो देखो, हैं दोनों आलम सँभाल रक्खे
औ’ तुमने पहली ही फ़ुरसतों में, उबल-उबल कर बवाल रक्खे
---बवाल
निहित शब्दार्थ :- दोनों आलम = चल (मूक श्वान) - अचल (शिला), तुमने = मानव ने, उबल उबल = असंतुलित वाणी
लेबल:
आपसी बातचीत
बुधवार, 14 जनवरी 2009
लुक़्मान को दिखाना ..... (लाल-एन-बवाल)
न ग़ज़ल है न गीत है प्यारे
आपसी बातचीत है प्यारे
आपसी बातचीत है प्यारे
उस्ताद कहाँ और क्यूँ चाहिए ?
ये बतलाने के लिए दो शेर पेश हैं ---
साक़ी-ए-गुलबदन का, अन्दाज़ क़ाफ़िराना
उल्फ़त का भी जताना, दामन का भी बचाना
उल्फ़त का भी जताना, दामन का भी बचाना
और तब -
मेरी ग़ज़ल में वाक़ई, इस बार ऐबे-ज़म* है
लगता है अब पड़ेगा, लुक़्मान** को दिखाना
लगता है अब पड़ेगा, लुक़्मान** को दिखाना
---बवाल
शब्दार्थ :-
* ऐबे ज़म = अश्लीलता का दोष
** लुक़्मान = उस्ताद, इस्लाह देने वाला और एक तरह से हक़ीम लुक़्मान भी जिनके पास हर मर्ज़ की दवा हुआ करती थी ।
** लुक़्मान = उस्ताद, इस्लाह देने वाला और एक तरह से हक़ीम लुक़्मान भी जिनके पास हर मर्ज़ की दवा हुआ करती थी ।
पुण्य तिथि - २७ जुलाई २००२
लेबल:
क़सीदा
सोमवार, 12 जनवरी 2009
सोचेगा क्या ? ? ? --- बवाल
हौवा का मेरे आगे, क्या ख़ूब था बहाना !
आदम हो तुम क्या जानो ? सोचेगा क्या ज़माना !!
---बवाल
आदम हो तुम क्या जानो ? सोचेगा क्या ज़माना !!
---बवाल
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शेर
बुधवार, 7 जनवरी 2009
क्या फिर किसी केशव का इंतज़ार है ???---(समीर लाल और बवाल)
आज अगर हम आशा करें कि कोई कृष्ण फिर अवतार लेगा और किसी अर्जुन का मार्गदर्शन कर विजय का मार्ग प्रशस्त करेगा तो शायद अतिशयोक्ति ही कहलायेगी. आज के हमारे रहनुमा तो स्वयं अर्जुन टाईप हैं, कहो न कहो वो कृष्ण जी को ही अपने हिसाब का संदेश दिलवाने के लिए उन्हीं को आरक्षित सूची में टॉप पर बैठाल दें और लीजिए कृष्ण जी सेट.
इन्टरनेट से कृष्ण-अर्जुन
आज गीता के नव-संदेशों की आशा करना मात्र मूर्खता ही साबित होगी. सब अपनी जुगत बैठाल रहे हैं. देश और देशवासियों की रक्षा के पहले कुर्सी की रक्षा सर्वोपरि बनी हुई है. सियासती चालें ऐसी कि सिद्ध प्रमेय को सिद्ध करने के लिए युद्ध रुका हुआ है, जाने क्या सिद्ध करने करने के लिए.
माना कि हमला ही एक मात्र उपाय नहीं है, मगर यह उपाय ही नहीं है, ऐसा भी तो नहीं. और जब कोई अन्य उपाय कारगर नहीं हो पा रहा है तो इसी के अमल से क्यूँ गुरेज़. कहीं बात कुछ और तो नहीं.
गीता का नव संदेश आये या न आये, फिर भी कुछ संदेश देने में क़लम क्यूँ रुके. क़लम की अपनी ताक़त है. गीतों और ग़ज़ल की अपनी ज़ुबान है. समझ अपनी अपनी-कहन अपना अपना.
लीजिए पेश है लाल और बवाल की एक और जुगल बंदी. शायद आपको यह संदेश पसंद आये:
चलो भी यार चलो, तो कमाल हो जाए
ज़माना याद रखे, वो धमाल हो जाए
हसीन शाम का, चेहरा उतर रहा है तो...
...तो पेश महफ़िल में, दिल का हाल हो जाए
न ऐसी बात करो, यार पीछे हटने की !
ख़ज़ाना खोदना हो, और कुदाल खो जाए?
जवाब खोजता, रह जाए ये तमाम आलम
अनासिरों से कुछ, ऐसा सवाल हो जाए
मैं रिंद वो नहीं जो, मय से होश खो जाए
मैं रिंद वो के जो, बिन मय निढाल हो जाए
वो जाने कौन सा ग़म, दिल से लगाये बैठा है
सुना दो ऐसी ग़ज़ल, वो निहाल हो जाए.
ये "लाल" रम्ज़-ओ-इस्लाह है, इसी ख़ातिर
ज़ुबानदाँ ज़माँ, हमख़याल हो जाए
के हामी भर दो चलो, देर ना करो देखो
ना ख़ुशख़िसाल फिर, बरहम "बवाल" हो जाए !!
---समीर लाल और बवाल (जुगलबंद)
शब्दार्थ :-
रिंद = पीनेवाला
मय = शराब
तमाम आलम = ब्रह्माण्ड
रम्ज़ = इशारा, संकेत
इस्लाह = मार्गदर्शन
अनासिर = पंचतत्व, पंचमहाभूत
ज़ुबानदाँ = भाषा का ज्ञाता
ज़माँ = संसार, ज़माना
हमख़याल = मित्र, एक जैसे विचार वाला
ख़ुशख़िसाल = मधुर स्वभाव
बरहम = अप्रसन्न
आज गीता के नव-संदेशों की आशा करना मात्र मूर्खता ही साबित होगी. सब अपनी जुगत बैठाल रहे हैं. देश और देशवासियों की रक्षा के पहले कुर्सी की रक्षा सर्वोपरि बनी हुई है. सियासती चालें ऐसी कि सिद्ध प्रमेय को सिद्ध करने के लिए युद्ध रुका हुआ है, जाने क्या सिद्ध करने करने के लिए.
माना कि हमला ही एक मात्र उपाय नहीं है, मगर यह उपाय ही नहीं है, ऐसा भी तो नहीं. और जब कोई अन्य उपाय कारगर नहीं हो पा रहा है तो इसी के अमल से क्यूँ गुरेज़. कहीं बात कुछ और तो नहीं.
गीता का नव संदेश आये या न आये, फिर भी कुछ संदेश देने में क़लम क्यूँ रुके. क़लम की अपनी ताक़त है. गीतों और ग़ज़ल की अपनी ज़ुबान है. समझ अपनी अपनी-कहन अपना अपना.
लीजिए पेश है लाल और बवाल की एक और जुगल बंदी. शायद आपको यह संदेश पसंद आये:
चलो भी यार चलो, तो कमाल हो जाए
ज़माना याद रखे, वो धमाल हो जाए
हसीन शाम का, चेहरा उतर रहा है तो...
...तो पेश महफ़िल में, दिल का हाल हो जाए
न ऐसी बात करो, यार पीछे हटने की !
ख़ज़ाना खोदना हो, और कुदाल खो जाए?
जवाब खोजता, रह जाए ये तमाम आलम
अनासिरों से कुछ, ऐसा सवाल हो जाए
मैं रिंद वो नहीं जो, मय से होश खो जाए
मैं रिंद वो के जो, बिन मय निढाल हो जाए
वो जाने कौन सा ग़म, दिल से लगाये बैठा है
सुना दो ऐसी ग़ज़ल, वो निहाल हो जाए.
ये "लाल" रम्ज़-ओ-इस्लाह है, इसी ख़ातिर
ज़ुबानदाँ ज़माँ, हमख़याल हो जाए
के हामी भर दो चलो, देर ना करो देखो
ना ख़ुशख़िसाल फिर, बरहम "बवाल" हो जाए !!
---समीर लाल और बवाल (जुगलबंद)
शब्दार्थ :-
रिंद = पीनेवाला
मय = शराब
तमाम आलम = ब्रह्माण्ड
रम्ज़ = इशारा, संकेत
इस्लाह = मार्गदर्शन
अनासिर = पंचतत्व, पंचमहाभूत
ज़ुबानदाँ = भाषा का ज्ञाता
ज़माँ = संसार, ज़माना
हमख़याल = मित्र, एक जैसे विचार वाला
ख़ुशख़िसाल = मधुर स्वभाव
बरहम = अप्रसन्न
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जुगलबंदी
गुरुवार, 1 जनवरी 2009
मिसरा-ए-ऊला .... मिसरा-ए-सानी (नव-वर्ष पर :- बवाल)
ब्लॉगिस्ताँ के सभी अहबाबों और अजीजों को नव-वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएँ और बधाइयाँ ---
हमारी नज़र में, ये दुनिया-ए-फ़ानी
है मिसरा-ए-ऊला, है मिसरा-ए-सानी
---बवाल
भावार्थ :-
ये नश्वर संसार ज़रूर है, पर नष्ट होता नहीं। यही बीता वर्ष (मिसरा-ए-ऊला) भी है और नव वर्ष (मिसरा-ए-सानी) भी यही कुछ रहना है। न बदला है, न बदलेगा कुछ भी। इसलिए वर्तमान को ही गत और नवागत मानते हुए प्रसन्नचित्त जीवन जिए जाइए।
हमारी नज़र में, ये दुनिया-ए-फ़ानी
है मिसरा-ए-ऊला, है मिसरा-ए-सानी
---बवाल
भावार्थ :-
ये नश्वर संसार ज़रूर है, पर नष्ट होता नहीं। यही बीता वर्ष (मिसरा-ए-ऊला) भी है और नव वर्ष (मिसरा-ए-सानी) भी यही कुछ रहना है। न बदला है, न बदलेगा कुछ भी। इसलिए वर्तमान को ही गत और नवागत मानते हुए प्रसन्नचित्त जीवन जिए जाइए।
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