रविवार, 21 सितंबर 2008

इस्लामाबाद की आग का दर्द

मंज़र ही हादिसे का अजीबोग़रीब था
वो आग से जला जो नदी के क़रीब था ।

-----मलिक ज़ादा मंज़ूर

4 टिप्‍पणियां:

MANVINDER BHIMBER ने कहा…

मंज़र ही हादिसे का अजीबोग़रीब था
वो आग से जला जो नदी के क़रीब था ।

kya baat hai...sunder andaaj

Udan Tashtari ने कहा…

मंजूर साहब का शेर-बहुत उम्दा पेशकश.

seema gupta ने कहा…

वो आग से जला जो नदी के क़रीब था
"uf! kitne badnasebe or badkismtee ..........."

Regards

बेनामी ने कहा…

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