शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

तामीले-हुक्म (मुकुलजी, समीरलालजी, सीमा गुप्ताजी, और ताऊजी का) ---बवाल

आज जब हम प्रिय भाई "मुकुल" के ब्ला॓ग पर गए, तो ख़ुद के लिए एक प्यारे से हुक्म को सैर करते पाया। "बवाल भाई इसे पूरा करें"। हम घबराए के हमसे क्या अधूरा रह गया जी ? जब नीचे लिखी ये चतुश्पदियाँ देखीं तो माजरा समझ आया। और उस पर टिप्पणियों में आदरणीय समीरलाल जी, सीमाजी, और ताऊजी का स्नेह भरा आग्रह, कतई टालते न बना।

वैसे ज़रा "मुकुल" भाई के द्वारा रचित ये सुन्दर चतुश्पदियाँ देखिए। हमें तो ये कहीं से अधूरी नहीं लगीं :-
माना कि मयकशी के तरीके बदल गए
साकी कि अदा में कोई बदलाव नहीं है!
गर इश्क है तो इश्क की तरहा ही कीजिये
ये पाँच साल का कोई चुनाव नहीं है ?
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गिद्धों से कहो तालीम लें हमसे ज़रा आके
नौंचा है हमने जिसको वो ज़िंदा अभी भी है
सूली चढाया था मुंसिफ ने कल जिसे -
हर दिल के कोने में वो जीना अभी भी है !
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यूँ आईने के सामने बैठते वो कब तलक
मीजान-ए-खूबसूरती, बतातीं जो फब्तियां !
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मगर अब जब आप सब प्रियजन इतना फ़ोर्स कर ही रहे हैं, तो लीजिए कुछ इस तरह से इनमें हम भी शामिल हुए जाते हैं जी---
माना कि मैकशी के तरीक़े बदल गए
साक़ी कि अदा में कोई, बदलाव नहीं है !
गर इश्क़ है तो इश्क़ के मानिंद कीजिये
ये पाँच साल का कोई, चुनाव नहीं है !!
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गिद्धों ज़रा तालीम लो, फिर से कहीं जाके,
नोंचा था तुमने जिसको परिंदा, अभी भी है !
सूली चढ़ा दिया था जी, मुंसिफ़ ने कल जिसे,
वो दिल के कोने में कहीं ज़िंदा, अभी भी है !!
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यूँ आईने के सामने, टिकते वो कब तलक ?
मीज़ान-ए-हुस्न कस रहा था उनपे फब्तियाँ !
फबने का ज़माना भी था, उनका कभी कहीं,
पर अब तो सज रही हैं, झुर्रियों की ख़ुश्कियाँ
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आग़ाज़ को अंजाम पे, आने तो दीजिए
दिल में ज़रा बवाल, मचाने तो दीजिए
है इश्क़ में अब भी हमारे, वो ही दम-ओ-ख़म
नज़रों से नज़र आप, मिलाने तो दीजिए
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मुकुलजी, समीरलाल जी, सीमा गुप्ता जी और ताऊ रामपुरिया जी के साथ-साथ सभी ब्ला॓गर बंधुओं को इस प्रिय आग्रह के लिए बहुत बहुत आभार सहित
---बवाल

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

पुरवाई में ??.............(बवाल)

नाम उनका पुकारा गया बज़्म में,
थे जो मसरूफ़ अपनी ही तन्हाई में !
लोग ठिठके, ठहर सोचने ये लगे !
किसने तूफ़ाँ को छेड़ा है पुरवाई में ??

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

लिखा जो ख़त तुझे.......................(बवाल)

ब्ला॓गिस्ताँ के प्रियजनों,

निम्नलिखित प्रेम-पत्र, हमने अपनी गर्लफ़्रैण्ड को १४ फ़रवरी सन १९८८ को लिखा था। आप भी मुलाहिजा फ़रमाइए, हँसियेगा कतई नहीं---
प्रिय ............,
तुम्हें इतना सारा प्यार के जितना ......
राम को सीता से, कृष्ण को राधा से, जहाँगीर को अनारकली से, शाहजहाँ को मुमताज़ से,
रोमियो को जूलियट से, राँझा को हीर से, मजनूँ को लैला से, महिवाल को सोहनी से, इन्द्र को उर्वशी से, नल को दमयंती से......,
बहादुरों को तलवार से, नाविक को पतवार से, नर्तकी को पायल की झंकार से, कला को कलाकार से, अदा को अदाकार से, फ़न को फ़नकार से, दुश्मनी को तकरार से, मोहब्बत को इक़रार और इंतज़ार से, दिल को दिलदार से, योद्धा को धनुष की टंकार से.....,
पंथी को डगर से, बाँध को नहर से, सागर को लहर से, प्रदूषण को शहर से, निराश को ज़हर से, क़यामत को कहर से.....,
चावल को दाल से, मछुआरे को जाल से, पंछियों को डाल से, कंजूस को माल से,
बुढ़ापे को काल से, ठगों को चाल से, तबलची को ताल से, दलाली को दलाल से, मुसीबत को तंगहाल से, गायक को ख़याल से, चुंबन को गाल से.....,
चालक को गाड़ी से, सिक्ख को दाढ़ी से, स्त्रियों को मँहगी साड़ी से, पियक्कड़ों को ताड़ी से...,
पर्वतारोही को पहाड़ों की चोटी से, कुत्ते को बोटी से....,
मनुष्य को आज़ादी से, पोतों को दादी से, युद्ध को बरबादी से, युवाओं को शादी से...,
पराक्रम को हनुमान से, कर्ण को दान से, संगीत को कान से, बादशाहों को आन से, नवाबों को शान से, आदमी को जान से, भगत को भगवान से, शहीदों को बलिदान से, गाँधी को हिन्दुस्तान से....,
अंधविश्वासी को वहम से, गँजेड़ी को चिलम से, घायल को मलहम से, लेखक को क़लम से,
और जी हाँ आपको हम से .........................
..................................
प्यार है।
आप मेरी शाइरी, आपकी क़सम
जोड़ी मेरी आपकी ख़ूब रहेगी जम
आप मेरे साथ हैं, तो कुछ नहीं है ग़म
एक तन, एक दिल, एक जान हों हम
आप मेरी ज़िंदगी का नूर हो सनम
रात १२.०० बजे १४ फ़रवरी १९८८
जबलपुर
पूछिए के फिर क्या हुआ ?
अरे फिर होना क्या था, उस समय दोनों के घर वाले ही (राम सैनिक) बन गए।
बाद को हमने फिर प्रयास किया एक और अतिसुन्दर कन्या को यह पत्र देने का ---

संकोच ही करते रह गए भैया और उनकी शादी कहीं और तय कर दी गई।
ये इत्तेफ़ाक भी है कि उनकी और हमारी शादी एक ही तारीख़ और एक ही वक्त पर हुई।
और उन्हें अब तक पता नहीं
और अंत में जिन्हें ये ख़त दिया उन्हें उस ज़माने में हिन्दी ही नहीं आती थी, मगर
दिल की ज़बान भली भाँति समझती थीं वो....
जी हाँ ठीक समझे आप ..... बवालिन ही हैं ये

और इसलिये तब से अब तक यही साथ देती रहीं और आगे भी संभावना नज़र तो आ रही है, अगर हमने ये ख़त किसी और को नहीं दिया तो .....हा हा

आप सभी को वेलेण्टाइन डे पर बहुत बहुत मुबारकबादियाँ

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

ऐसी क्या बात है ? ...... नीरज

बाद मेरे हैं यहाँ और भी गाने वाले
स्वर की थपकी से पहाड़ों को सुलाने वाले ।
उजाड़ बाग़ बियाबान औ सुनसानों में
छंद की गंध से फूलों को खिलाने वाले ॥
इनके पाँवों के फफोले न कहीं फूट पड़ें
इनकी राहों से ज़रा शूल हटा लूँ तो चलूँ
ऐसी क्या बात है चलता हूँ अभी चलता हूँ
गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ तो चलूँ
---गोपालदास 'नीरज'
(महाकवि के जन्मदिवस पर उन्हें ब्ला॓गजगत की बहुत बहुत शुभकामनाएँ)

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

जोल्ट फ़्रा॓म जबलपुर ...........!! नर्मदे हर !!

और तो कुछ न हुआ, पी के बहक जाने से
बात मयख़ाने की, बाहर गई मयख़ाने से

शाइर ने यह शेर कहते वक्त कभी भी यह न सोचा होगा के ये इतना अधिक प्रासंगिक बन जाएगा के हर जगह फ़िट बैठेगा। हा हा !
पिछले तीन चार दिनों की ज़ोरदार आल्हा-ऊदली बड़ी ही मज़ेदार रही। क्या कहना ! अहा!
कोई जवाब नहीं है भाई, उन बेहतरीन पोस्टों और चर्चाओं का। बिल्कुल बजा और दुरुस्त। आनन्द भी आया बहुत। न जाने क्या क्या कयास लगाए गए ? हा हा। बच्चे तक ताली वाली पीटने लग गए, पर बात तो बड़ी थी और हाँ बड़ों की भी। लोग कहते पाए गए, लड़े चलो लड़ैयों। हा हा ।
पर लगता है ठीक तरह से WWF की कुश्तियाँ वगैरह नहीं देखते। भई देखना चाहिए वो भी। देखते होते तो यूँ रघुनाथ न होते। हा हा। नूरा कुस्ती का नाम नहीं सुने हैं का ?
अरे भाई ई सब नौटंकी हम सब जबलपुरिया कौनऊ कौनऊ की मौज लए की खातर किए रहे अऊ आप लोग समझत रहे कि आप हम लोगन की मौज लै रहे हो। ऎ बबुआ आल्हा-चिट्ठा तक मार दिए। हाहा। कौनऊ बात नाहीं भाई । जि का दुई बोल मा ही लच गई दुनिया सगरी, ऊ लचकदार की बातन माँ लचक हुईबै करी। द्याखा ई का कहत हैं जबलपुरी झटका (जोल्ट) हा हा ।
मगर हाँ ई तारीफ़ तो आपहू की करै का परी के, लिटरेचरवा बहुत जोरदार जड़ै हौ आप लोगन।
पर ऊ का पीछे ई काहे जड़ बैठे की हम रिस्तेदारी मा, राज ठाकरे के ताऊ मंजे बाऊ मंजे बाल ठाकरे होय गए। ई कौन साजिस है भाई ? औ जब बोल ही दिए थे पार्टनर तो देख लेते। ई का के इत्ता आल्हा सुनाए के बाद भी पोस्ट उठाय लिए औ बाद में रण भी छोड़ कर भाग लिए । चला लौट आब । बहुत बहाय लिहिन टंसुआ । देखो इत्ते प्यार से बुला रहे हैं मान जाब भाई, नहीं तौ फिर हमका मराठी मा समझाय का परी--
"आणि हे काय रे भाऊ, लाज येत नाय का तुमाला ? आपण कोण ? अरे आपण सगड़्या एकच आहे रे पण हे काय सांगीतला तुमि ? राज ठाकरे याँच्या ताऊ मंजे माहिती तुमाला ? शम्भर ट्क्के गाली दिली, जबलपुरी माणूस ला। चल सा॓री मण्ड याच्या बद्दल। ऒके। दिली दिली रे, तू पण आप्ल्या माणूस आणि भाऊ आहेत। पण आज पासून गप्प बसायला पाहिजे। अरे आ॓लरेडी बवाल झालेलाय रे बाबा। हा हा हा।" (बुरा न मानो मौजवा है)
और ब्ला॓गिताँ के प्रिय मित्रों ! माँ नर्मदे के पुत्र और आचार्य विनोबा की संस्कारधानी के लोग क्या ऎसे हो सकते हैं, जैसे समझ लिए गए। ये प्रयोजन तो महज़ परसाई जी के व्यंग की धार और "बात तो चुभेगी" के बीच का अन्तर दर्शाने के लिए था और कुछ भी नहीं। इसे किसी किस्म की साज़िश न समझें और ब्ला॓गिंग का भरपूर आनंद लें। हम सब एक हैं और सब के साथ हैं।
और जबलपुर तो सचमुच डबलपुर है ही, क्योंकि यहाँ का हर बंदा एक नहीं दो के बराबर है। शरीर ही से नहीं दिल से भी हा हा। चलिए जाने दीजिए।

१) साँप का ज़हर और उसका उसके ही ज़हर से उतरना, २) तहज़ीब याने संस्कार ३) आग के क़तरे ४) गाँधी के तीन बन्दर (बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो) से आदमी की तुलना और ५) संग याने साथ और संग याने पत्थर (संगमरमर) याने "जबल" के टूट्ने का दर्द और अपने शहर के लिए जज़्बा । ये सब देखिए आगे नग़्मा-ए-बवाल में।
--- अन्जुमने-ब्ला॓गराने-जबलपूर
(संस्कारधानी के समस्त ब्ला॓गर बंधुओं की ओर से सबको नर्मदे हर)

शहर बनाने के लिए

साज़िश न कहो, ये तो कोशिश है, इक ज़हर का ज़हर झड़ाने के लिए
यहाँ कौन है ? ये बीड़ा उठाने के लिए, इस शहर को शहर बनाने के लिए
तहज़ीब तो है, तरतीब नहीं, जो जहाँ से चला, वो है आज वहीं
है कुदाल तो राह बनाने के लिए, तरक़ीब नहीं है चलाने के लिए
---यहाँ कौन है ये बीड़ा ......
क़िस्मत में ही जिनके, तरसने को है, वो ये समझे के मेघ बरसने को है
ये तो क़तरे हैं आग लगाने के लिए, अभी बरसों हैं प्यास बुझाने के लिए
---यहाँ कौन है ये बीड़ा ......
बंद-बंद नज़र, बंद-बंद ज़ुबाँ, बंद गोश (कान) हैं, हर बंदे के यहाँ
वाँ तमाशा ही है, दिखलाने के लिए, याँ बवाल है सुनने-सुनाने के लिए
---यहाँ कौन है ये बीड़ा ......
संग टूट रहे, रंग छूट रहे, अंग अंग की अज़्मत लूट रहे
तंग करता बवाल, शहर छोड़ दे, पर दिल नहीं करता है जाने के लिए
---यहाँ कौन है ? ये बीड़ा उठाने के लिए, इस शहर को शहर बनाने के लिए
--- बवाल

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

क्यूँ है..........?

वही हमारे वही तुम्हारे, तो फिर मचा ये बवाल क्यूँ है ?

मेरे शहर की बुलंदियों की, ये हद से गिरती मिसाल क्यूँ है ?