बुधवार, 30 दिसंबर 2009

साल २००९ की "रीमिक्स" पहेली : आयोजक बवाल

ये पहेली - वो पहेली, फ़लाँ पहेली - ढिकाँ पहेली, यहाँ पहेली - वहाँ पहेली, आऊ पहेली - म्याऊँ पहेली - उबाऊ पहेली, उड़न पहेली - गिरन पहेली, पूछ पहेली - ताछ पहेली, राज़ पहेली -  फ़ाश पहेली,  इफ़ पहेली - बट पहेली, पहेली - पहेली, अहेली - अहेली, हेली हेली -  एली एली, ली ली - ई ई, ईईईईईईईईईईई.............................................ई ।
बस, बस, बस्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स्स......।

सुनते सुनते, पढ़ते पढ़ते, भाग लेते लेते, इतनी गड्डम-गड्ड मच गई है कि अब तो हमें भी पहेली पूछने का मन होने लग गया रे भैया। अब तो हम भी पूछेंगे । नई तो पूँछ खैंचेंगे । हा हा।

बस इसी चक्कर में सोचा क्यों ना वो वाली चित्र पहेली पूछी जाए जिसमें दो एक से चित्र बना कर दूसरे वाले में कुछ ग़लतियाँ कर दी जाती हैं और फिर दोनों में अन्तर पूछा जाता है। मगर अलसेट यह हो रही थी कि चित्र अपन से बनते कहाँ हैं ? ख़ुद ही विचित्र जो ठहरे। या जैसे कभी कभी किसी की अच्छी भली तस्वीर को सिल बट्टे पर पिसी हुई अमरूद की चटनी बना कर पूछा जाता है, पईचान कोन ?  पर बचपन में एक दफ़ा दोनों पैर के अँगूठों पर इसी चक्कर में सिल गिरा बैठे थे सो ये आइडिया तत्काल प्रभाव से ड्रॉप कर दिया। इसकी नाक उसकी उसकी नाक पर लगाना तो सबसे रिस्की है। अरे कहीं किसी ऊँची नाक वाले पर नीची नाक लगा दी तो वो तो हम पर मानहानि का मुकद्दमा ही ठोंक डालेगा ना। ना बाबा ना। तौबा तौबा।  खै़र, सोचते रहे सोचते रहे।

अचानक एक विचार कौंधा और हमने आनन-फ़ानन में एक मशहूर ब्लॉगर की एक बहुत ही बेहतरीन रचना चूज (चूज़) की और उसे रीमिक्स (तोड़-मरोड़) बनाने की ठान ली। मगर तुर्रा ये के गीत लिखना अलग बात उसे तोड़ना मरोड़ना, डिफ़रेण्ट। अलग और डिफ़रेण्ट में क्या डिफ़रेन्स है ये तो आप लोग जान ही चुके हैं। है ना ?  मगर ज़रूरत पड़ने पर आदमी फ़िल इन द ब्लैंक्स को भी अपना फ़िल इन द बलैंक्स बना लेता है, आपको विश्‍वास न हो तो चाहे जिससे पूछ लें। हमने भी यही किया और अपने भीतर के बवाल को अपना फ़िल इन द ब्लैंक्स बना कर यह काम सौंप दिया। मगर ससुरा यह बवाल है ना, ये अपने नाम को पहले दिन से ही बट्टा लगाए बैठा है। नाम बवाल है और काम हमेशा उल्टा ही करता है। देखिए ना हमने रचना को तोड़-मरोड़ कर रीमिक्स (जैसा कि आजकल लता जी, आशा जी, किशोर दा, रफ़ी साहब आदि के सदा बहार सुन्दर गानों की बखिया उधेड़ कर किया जा रहा है) बनाने को कहा और उसने ओरीज़नल सुन्दर रचना के शब्दों को न जाने किस तरह उलट पलट कर एक दूसरे ही रूप में सामने रख दिया । अब हम करते भी तो क्या करते जब शब्द भी वही, सेन्ट्रल आइडिया भी वही और बात भी वही तो मान लिया रचना को "रीमिक्स"। हा हा ।

बहरहाल अब आपको इस रीमिक्स पहेली को कुछ यों बूझना है के नीचे दी गई “रीमिक्स” रचना की ओरीज़नल रचना :-

१) किस ब्लॉगर ने लिखी ?

२) किस ब्लॉग पर लिखी ?

३) किस तारीख को लिखी ?

४) रचना की पहली लाइन क्या है ?

तो लीजिए पढ़िए ये रीमिक्स रचना और बूझिए पहेली :-


गीत अधूरे तुम बिन मेरे

***

गीत अधूरे, तुम बिन मेरे, साज़ों में कोई तार नहीं !

बिखरी हैं रचनाएँ सारी, शब्दों में कोई सार नहीं !!


भाव हृदय के व्यक्त करूँ क्या ? अन्यमनस्का हूँ मैं अब तो !

बस जज़्बात मचलते रहते, मिलता कहीं करार नहीं !!


तुम अनजानी अभिलाषा हो, या मृगतृष्णा मेरी हो तुम !

झलक दिखाते, नज़र ना आते, सुनते मेरी पुकार नहीं !!


तप्‍ते मन की, बिरहा अगन पर, प्रेम फुहारें बरसा दो अब !

ऐसा मत कह देना के फिर, मिलने के आसार नहीं !!


कम से कम मेरे अन्त से पहले, प्रियतम मिलने को आ जाना !

ये मेरी मनुहार है तुमसे, ये मेरा अधिकार नहीं !!


--- बवाल (रीमिक्सर)


***

नोट : रीमिक्स पहेली का उत्तर एवं विजेता का नाम ३१ दिसम्बर २००९ से १ जनवरी २०१० के बीच  प्रकाशित कर ही दिया जावेगा। (नहीं तो लोग क्या कहेंगे) हा हा !

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

मुहम्मद रॉबर्ट सिंह दुबे .............(बवाल)



आलाप:- जो अल्लाह से आग़ाज़ करे, और गणपति से भी शुरू करे !
उसका हर काम सफल साईं, प्रभु यीशू वाहे गुरू करे !!

नफ़रत की रातों को बना दे, मुहब्बत की सुबे (सुबह)
ऐसा एक इंसान है ये, मुहम्मद रॉबर्ट सिंह दुबे


कोरस :- हर हर महादेव, अल्लाहो-अकबर, जो बोले सो निहाल,
Praise the Lord Jesus, नानक को, अपना है सत श्री अकाल


१) आपस मे लड़वाने को, हर कोई है तैयार
समझो इनकी साज़िश को, आँखें खोलो यार
समझाता है ये, मुहम्मद रॉबर्ट सिंह दुबे

कोरस :- हर हर महादेव, अल्लाहो-अकबर, जो बोले सो निहाल,
Praise the Lord Jesus, नानक को, अपना है सत श्री अकाल

२) नूह की नाव का क़िस्सा क़ुरआन में, बाइबिल में जो है,
मत्यवतार में मनू ऋषि की, नाव वही तो है
सिद्ध कर रहा ये, मुहम्मद रॉबर्ट सिंह दुबे

कोरस :- हर हर महादेव, अल्लाहो-अकबर, जो बोले सो निहाल,
Praise the Lord Jesus, नानक को, अपना है सत श्री अकाल

३) हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, सबका मालिक एक
एक नज़र से वो हम सबको, रहा है प्यारे देख
दिखलाता है ये, मुहम्मद रॉबर्ट सिंह दुबे

कोरस :- हर हर महादेव, अल्लाहो-अकबर, जो बोले सो निहाल,
Praise the Lord Jesus, नानक को, अपना है सत श्री अकाल

नफ़रत की रातों को बना दे, मुहब्बत की सुबे
ऐसा एक इंसान है ये, मुहम्मद रॉबर्ट सिंह दुबे

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

तुहमत वो हम पर...............(बवाल)

आपकी तारीफ़ में, जो हम क़सीदे पढ़ चले
तालियों के सिलसिले, तड़ तड़ तड़ा-तड़ तड़ चले

उल्फ़तों की राह में, जो हम ज़रा सा बढ़ चले
बस, ज़माने भर की नज़रों में, सरासर गड़ चले

हम परिन्दे थे, ज़माना बेरहम सैयाद था
क़ैद में भी पर हमारे, फड़ फड़ा-फड़ फड़ चले

वो झलक थी आपकी, जिस पर मिटा सारा जहाँ
छिप के भी धड़कन हमारी, धड़ धड़ा-धड़ धड़ चले

वो अदब का क़त्ल था, जो सारा आलम लाल था
और ‘बवाल’-ए-बज़्म की तुहमत, वो हम पर मढ़ चले

---बवाल

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

मेरे सपनों का एग्रिगेटर (बवाल)

हाय,
ये भी कोई बात है मैथिली जी, कि दुनिया भर को अपनी बात कहने का मंच देने वाले होकर भी विजय पर्व पर हार मान बैठे। वो भी इसीलिए माननी पड़ी कि आपकी ब्लॉगवाणी ब्लॉग मंच से हटकर एक युद्ध क मैदान बन पड़ी थी। आज सबसे अधिक पसंद प्राप्त, आज सबसे ज्यादा पढ़े गए, आज सबसे ज्यादा टिप्पणी प्राप्त आदि आदि। मगर आज का सबसे बेहतर चिट्ठा ? वो कहाँ ? चाहे उस पर कोई पसंद, कोई टीप, कोई पठन ना हो। इस चक्कर में कुछ स्तरीय बातें नज़र से छूट जाती थीं। खै़र अब तो मट्की फूट गई। मगर ये मट्की क्यूँ फूटी ?
काश के कोई ऐसा एग्रीगेटर होता के-
१) जो अल्फ़ाबेटिकली अरेंज्ड होता।
२) दिन भर में २४० पोस्टों से ऊपर प्रदर्शित ही ना करता।
३) एक ब्लॉगर को हफ़्ते में एक ही दिन पोस्ट करने देता।
४) ब्लॉग को जिसने भी पढ़ा उसे टिप्पणी कार मानता।
५) पसंद नापसंद के लिए अलग से विशिष्ट टीप की व्यवस्था रहती।
६) सबसे ज़्यादा और सबसे कम का दिल छोटा करने वाला कोई पैमाना ही ना होता।
७) ब्लॉग महज़ ब्लॉग रहता, कोई प्रतियोगिता, पसंद, श्रेष्ठता और पहेली की वस्तु ना रहता।
काश के ऐसा होता ।
काश के ऐसा के ही हो।
आज ब्लॉगवाणी भी शोले के धरम प्राजी जैसे टंकी पर चढ़ चुकी है। लेकिन ये भी सच है के जब गुस्सा उतर जाएगा तब ये भी उतर आएगी। और आप कोई हिन्दी ब्लॉगिंग पर एहसान नहीं कर रहे थे मैथिली जी या सिरिल जी, बल्कि अपना कर्तव्य निभा रहे थे। तो क्या इस यज्ञ में हम आपके साथ नहीं थे। अब भी हैं। कम बैक जी।
फ़ोन बंद कर देने से क्या बात बंद हो जाएगी। ये वो निकली है जो अब दूर तलक जाएगी। दीवार फ़िल्म के उस डायलॉग को याद कीजिए के "जिसने तेरे हाथ पर यह लिख दिया के मेरा बाप चोर है" वो तेरा कौन था ?
पसंद नापसंद के चट्कों से दुनिया नहीं चलती । वो तो चलती है मोहब्बती उसूलों से ।
चलते चलते नीरज के उस गीत को चलिए फिर याद कर लें--
ऎसी क्या बात है चलता हूँ अभी चलता हूँ गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ तो चलूँ ।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

दिल में .............(बवाल)

वाह, क्या दीवान तेरा, नूर सा फबता हुआ !



जिसमें ख़ुद को पा रहा हूँ, तुझसे मैं कटता हुआ !!



ख़ैर दिल की बात दिल तक ही, रखूंगा यार अब !



और कर भी क्या सकूंगा, मोहरा हूँ पिटता हुआ !!



--- बवाल

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

सबब ................(बवाल)

मैं सब्रो-रंगे-सुकून में हूँ , मुझे संभालो मेरे सहारों

सबब है इस इल्तिजा के पीछे, के चल बसा हूँ ओ मेरे यारों

---बवाल

सोमवार, 13 जुलाई 2009

आज महफ़िल में कोई

कभी कभी ये जो आप सबका प्रिय ‘बवाल’ है ना, इसे हमें ‘रय दुष्ट’ कहने का मन किया करता है. पता है क्यों ?

इसका मूडे-मंज़र अजीब ही होता है. ये शायर-वायर टाइप के लोग ऐसे ही होते हैं क्या ? अब देखिए ना. एक ज़माने में गुरूजी पंकज सुबीर साहब ने, इस साल होली के आसपास की बात है, तरही मुशायरे के लिए एक बहुत ही ख़ूबसूरत मिसरा दिया था- “आज महफ़िल में कोई शम‍अ फ़रोज़ाँ होगी”. और इस पर ब्लागरों से ग़ज़ल कहने का आग्रह किया था.

बाद में उसमें कोई टैक्निकल प्राब्लम के चलते उसकी जगह कुछ और मिसरा-तरह दे दिया गया शायद. लेकिन उसके बदलने के पहले ही हमने इस पर कुछ शेर-वेर लिख-विखा कर अपने भाई ‘बवाल’ को रिफ़र कर दिया था, मात्रा वात्रा के पेंचोख़म सुलझाने के लिए. बात आई गई हो गई. हमारी मेल न जाने उनके बाक्स पर कितने दिन धूल खाती पड़ी रही. अचानक अपनी ससुराल मँगलूर से, भाई साहब ने लौटकर हमें इसका जवाब भेज दिया. आय हाय जवाब की हैडिंग पढ़कर पहले तो ऐसा गुस्सा आया कि क्या बतलाएँ. मगर जवाब तो हमारी गुलों से सजी हुई ग़ज़ल थी, अरे क्रोध-काफ़ूर होते देर न लगी.

हमने उससे पहले तो यही कहा कि "कौन टाइप के हो यार ?”

हमारे इस सवाल का जवाब इन्होंने हमेशा दाँत निपोर कर ही दिया है, मगर वो दंत-निपोरी हमारे लिए अपनेपन से हमेशा लबरेज़ रही है. हा हा.

खै़र हमने फिर कहा- कि भैये वो २१२२ ११२२ ११२२ २२ वगैरह देख लिए के नहीं इसमें ?

तो भाई साहब उल्टा हमीं से पूछ बैठे के ग़ज़ल कहना है या परेड करना है ? १-२, १-२. अब बतलाइए.

हमने कहा- अरे यार मतलब वो फ़ाइलुन-फ़ाइलातुन वातुन क्या क्या होता है वो सब देख लिया ना ?

तो जवाब देते हैं - जानी, हम वक़ील हैं और वक़ील सिर्फ़ फ़ाइल से वास्ता रखता है तुन से नहीं, समझे !

क्या कहें तुम्हें ‘रय दुष्ट कहीं के’ !!! हा हा !

खै़र, आप तो ग़ज़ल पढ़िए और उसकी फ़ाइलिंग देखिए ....... इस जुगलबंदी में वैसे हमारी स्थिति तो बस बंदी वाली ही है बाकि जुगल कौन?

बगीचे से


आज महफ़िल में कोई, शमअ फ़रोज़ाँ होगी
जान-ए-परवाना यूँ तहज़ीब से क़ुर्बां होगी

हमसफ़र दिल से इजाज़त लिए बग़ैर यहाँ
बात आँखों से ख़ुद-बख़ुद ही अब अयाँ होगी

छ्लकते जाम पर फ़लक से जो होगी नाज़िल
वो झलक शोख़-चश्म नूरे-कहकशाँ होगी

फ़सुर्दाहाल पड़ी ज़ीस्त जो बियाबाँ में
क्या ख़बर वो ही आज जश्‍ने-चराग़ाँ होगी

दिल की धड़कन खिंची जाती है उसी की जानिब
बर्क़ हम पर ही सनम आज मेहरबाँ होगी

उसके वाबस्ता भी होकर के जो तन्हा ही रहे
सख़्तजाँ बेबसी की तब तो इन्तेहाँ होगी

एक-मज़हब ही रहेगी तमाम महफ़िल गर
एक मिक़्राज़ दिलों के भी दरमियाँ होगी

कौन किसके क़रीब कितना है ये देखोगे
जब निगहबान के हाथों में गिरेबाँ होगी

वज़ीफ़ा बज़्म में पढ़कर न मचा देना ‘बवाल’
‘लाल’ यूँ भी तुम्हें हासिल वो लामकाँ होगी

---समीर ‘लाल’ और ‘बवाल’ (जुगलबंदी)

फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, तहज़ीब = सभ्यता-शिष्टता, अयाँ = उजागर, फ़लक = आसमान,
नाज़िल = उतरना, शोख़-चश्म = चंचल नैनों वाली, नूरे-कहकशाँ = आकाशगंगा की रौशनी
फ़सुर्दाहाल = खिन्न-मलिन-उदास, ज़ीस्त = ज़िंदगी,
जश्‍ने-चराग़ाँ = दीपोत्सव-दीपावली, बर्क़ = तड़ित-बिजली, वाबस्ता = संबद्ध,
सख़्तजाँ = ज़िद्‍दी, मिक़्राज़ = कैंची, निगहबान = रक्षक,
वज़ीफ़ा = मंत्रजाप, बज़्म = महफ़िल,
लामकाँ = ईश्वर की राजगद्‍दी

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

ख़ुद ही पड़ा ........................(बवाल)

क़ातिल अदा का तेरा, क्या ख़ूब था निभाना !
मैं फ़ौत हूँ ये मुझको, ख़ुद ही पड़ा बताना !!

---बवाल
फ़ौत = मृत

सोमवार, 1 जून 2009

अपनी हदों को वापस........ (बवाल)

आलम को ज़द में लेकर, फिर मैं सम्भल पड़ा हूँ !
अपनी हदों को वापस, फिर मैं निकल पड़ा हूँ !!
--- बवाल
आलम = दुनिया
ज़द = रेंज
आदरणीय समीर लाल (उड़न तश्तरी) की मशहूर किताब "बिखरे मोती" के अंतरिम विमोचन के ज़माने से ही हम गायब पाए जाते रहे हैं। शिकायत भी लोगों की रही की उस मशहूर किताब में भी हम गायब ही पाये गये। अमाँ वो हमारे सबसे ज्यादा चाहने वाले हैं, क्या ये काफ़ी नहीं ? ज़रूरी है कि एलानिया परचम सरे-बज़्म लहराए जाएँ। चिरौरी से लेकर फट्कार तलक हमें इस दुनिया में समीर भाई के अलावा कभी किसी की ना पसंद आई ना आवेगी। इसलिए हमारे लिए उनकी मोहब्बत से बढ़कर कुछ नहीं। सबसे पहले उन्हें उनकी ३०० वीं पोस्ट के लिए और ११ हज़ार टिप्पणियों के लिए ढेर सारी बधाइयाँ। नामालूम कितने हवाई ख़त आकर जी-मेल के बक्से में पड़े थे। उन ख़तों में अपने लिए लोगों की इतनी मोहब्बत देखकर आँखें नम हो गईं। दिल की बीमारी से लड़ पड़ने की ताक़त यहीं से तो मिल जाती है जी हमको। ज़्यादा बैठ नहीं पाते अब कम्प्यूटर पर। बिखरे मोती के विमोचन के बाद ज़बरदस्त फ़ूड पोइज़िनिंग हुई। १० दिनों में हालत बदतरीन । ठीक होते ही पूना गाड़ी दौड़ाई। अजीब मसरूफ़ियत में दिन गुज़रे। वहाँ से दक्कन का सफ़र जो अब तक चल रहा है। खै़र, ये सारे अहवाल अगली पोस्टों में। आदरणीय दिनेशराय जी के पुत्र वैभव से जबलपुर में ना मिल पाए क्यों उस दिन हम पणजी में थे, माफ़ी चाहेंगे उनसे।मेल ही बड़ी लेट देख पाए सर। खै़र आपका फ़ोन नम्बर फ़ीड कर लिया है, बात ज़रूर करेंगे पूना पहुँच कर। बैलेंस कम है और यहाँ का रीचार्ज कूपन हमारे मोबाइल को लगता ही नहीं। हा हा।
भाई मुकुल, प्रिय अर्श, विवेक सिंह, सलिल साह्ब, प्रेम भाई, किसलय जी, डूबे जी, फ़ुरसतिया जी, राज सिंह जी, अनुपम जी, प्राण जी, महावीर जी, महेन्द्र मिश्रा जी, परम प्रिय समीर लाल जी, ताऊ जी, राज जी, विनय जी, सीमाजी, भूतनाथ जी, गौतम जी और ना जाने कितने ही अपनों ने याद किया बार बार। आप सभी का बहुत बहुत आभार और बारम्बार माफ़ी की दरकार। कर्नाटक के मंगलूर के एक गाँव नीरमार्ग जो इत्तेफ़ाक से हमारी ससुराल भी हुआ करती है से ये पोस्ट कर रहे हैं । बड़ी मुश्किल से हमारे साले साहब ने कहीं से डाटा कार्ड का इंतज़ाम कर दिया है, उनका भी आभार। शेष अगले अंक में.......
........ बवाल

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

अलग रही है.............(बवाल)

जो बख़्ते-खुफ़्त: सी लग रही है,
वो रफ़्त: रफ़्त: सुलग रही है !
मेरी कहानी ज़माने वालों,
अज़ल से ही कुछ अलग रही है !!
---बवाल
बख़्ते-खुफ़्त: = सोया हुआ भाग्य
रफ़्त: रफ़्त: = आहिस्ता आहिस्ता
अज़ल = अनादिकाल

मंगलवार, 31 मार्च 2009

आता है रफ़्त: रफ़्त: ......................(बवाल)

मकीं जो होते हैं आ के दिल में, उन्हीं से होता है दिल-शिकस्त:
ये वो हक़ीक़त है जिसपे सबको, यक़ीन आता है रफ़्त: रफ़्त:
मकीं = रहने वाले , शिकस्त: = टूटता

रविवार, 22 मार्च 2009

वो खू़न बाक़ी बचा कहाँ अब ? ............(बवाल)

वो ख़ून बाक़ी बचा कहाँ अब ? जो इन रगों में बहा किया था
हमीं ने शायद बफ़ज़्ले-साक़ी, बवाल इनमें रवाँ दिया था
---बवाल
बफ़ज़्ले-साक़ी = पिलाने वाले की मेहरबानी से
बवाल = यहाँ शराब के लिए इस्तेमाल किया गया
रवाँ = प्रवाहित करना

बुधवार, 11 मार्च 2009

आज सबके रंग ही उड़ जाएंगे........(लाल-और-बवाल .. जुगलबंदी)

हमें, याने मुझे और बवाल को पूरा होश है कि यह कोई वक्त नहीं ब्लॉगपोस्ट करने का। जिस वक्त सब होली के रंग में डूबे हों, भांग की पिनक में अजूबे हों और उस वक्त आप लट्ठ लेकर खड़े हो जायें कि हम लिखे हैं, पढ़ो, कितनी ग़लत बात कई लोग नहीं समझते, आप देख ही रहे हैं यहाँ मगर हम समझते नहीं समझ बैठते हैं

लेकिन समझ कर भी करें क्या? चुनाव का माहौल है तो नेता टाईप बिना सोचे समझे उड़न तश्तरी पर घोषणा कर दिये थे कि ११ तारीख को यहाँ अब बुला लिए हैं तो खाली हाथ बैरंग लौटाना हम जबलपुरियों का संस्कार नहीं है। कुछ तो सुनायेंगे-पढ़ायेंगे ही

पुनः जैसा कि वादा था कि बवाल का होलियाना बवाल सुनवायेंगे तो वो कार्यक्रम कल ही आज तो बस पढ़ ही लें, सुनने फिर आ जाइएगा आने जाने में कोई ख़र्च थोड़े ही लगता है। हाँ, मेहनत का सम्मान है और उसके लिए साधुवाद.

एक वाकियायाद आता है। कारण याद आने का कि एक तो चुनाव सामने हैं और दूसरा आप लोग हमारे ब्लॉग पर आने के लिए मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं

जंगल में एक बंदर इस बात से परेशान था कि हर बार शेर ही क्यूँ राजा बने, मैं क्यूँ नहीं? ( अपने ब्लॉगजगत में भी कई ऐसे बंदर हैं)

बस, इस मेनिफेस्टो पर चुनाव लड़ गया और जैसा कि होता है परिवर्तन का अहसास सुखद होता है भले ही परिवर्तन असहनीय हो, बंदर राजा चुन लिया गया।( उपर प्रदेश में बहन जी भी साक्षात उदाहरण हैं) शेर अपने में मस्त, बिना फिक्र बकरी के बच्चे को उठा ले गया खाने के लिए. बकरी मिमियाती भागी नये राजा बंदर के पास.

बंदर तुरंत साथ चला और जहाँ शेर बच्चे को ले गया था, वहाँ जाकर इस पेड़ से उस पेड़, उस पेड़ से इस पेड़..पसीना पसीना..हैरान परेशान..कूदना शुरु। शेर बिना किसी चिन्ता के बच्चे को मारता रहा और खा गया और फिर घने जंगल में निकल गया. बंदर पेड़ से उतर कर रोती बकरी के पास आया.

बकरी बोली-आप मेरे बच्चे को बचा नहीं पाये!!

बंदर ने उससे कहा कि बच्चा बचा या नहीं बचा, उसे छोड़ो। तुम तो यह देखो कि क्या मैने मेहनत में कोई कसर छोड़ी??...इस पेड़ से उस पेड़॥उस पेड़ से इस पेड़. पसीना पसीना..हैरान परेशान..भागता रहा तुम्हारे कारण..बकरी भी संतुष्ट हो गई और आँसूं पोंछ कर घर चली गई.

ऐसे ही बंदर राजाओं से भारत चल रहा है और हम हर हादसे पर आँसूं पोंछ कर घर आ जाते हैं अगले हादसे का इन्तजार करते जब यह बंदर फिर कूदेंगे।

हमारे राजा: बजा दें बाजा

खैर, जाने दिजिये..होली है, तो मस्त हो लिजिये...ऐसे ही यहाँ जिन्दगी कटती है..वरना तो जीना मुश्किल हो जाये..हम तो खुद अभी कुछ देर में रंगे हुए ठंडाई पी कर बवाल संग टनाक हो जायेंगे फिर दो एक दिन में ही दिख पायेंगे . तब तक यह रचना पढ़ें और गा कर देखें:


आज सबके रंग ही उड़ जाएँगे
सब हमारे रंग में ही रंग जाएँगे

सरहदों के पार भी हम जाएँगे
रंग अबकी बार उनको आएँगे

क़त्लगाहों को बदलकर बाग़ों में
रंगे-ख़ूँ पर रंगे-गुल चढ़वाएँगे

हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई चार रंग
ख़ूँ के रंग पर एक ही कहलाएँगे

बज़्म की तस्वीर बेरंग है तो क्या
बनके हम ख़ुशरंग फिर छा जाएँगे

हिन्द के रंगों से चुपके-चाप से
गाल दुनिया भर के रंगे जाएँगे

यूँ न पूछें रंग क्या है प्यार का
मुर्दगी को ज़िन्दगी कर जायेंगे

गर वफ़ा में रंग देखें आपका
प्यार को फिर बन्दगी कह जायेंगे

रंग मे भंग घुँट्वा के ये लाल-औ-बवाल
सब पे रंगीला नशा कर जाएँगे

होली महापर्व की बहुत बहुत बधाई एवं मुबारक़बाद !!!

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

तामीले-हुक्म (मुकुलजी, समीरलालजी, सीमा गुप्ताजी, और ताऊजी का) ---बवाल

आज जब हम प्रिय भाई "मुकुल" के ब्ला॓ग पर गए, तो ख़ुद के लिए एक प्यारे से हुक्म को सैर करते पाया। "बवाल भाई इसे पूरा करें"। हम घबराए के हमसे क्या अधूरा रह गया जी ? जब नीचे लिखी ये चतुश्पदियाँ देखीं तो माजरा समझ आया। और उस पर टिप्पणियों में आदरणीय समीरलाल जी, सीमाजी, और ताऊजी का स्नेह भरा आग्रह, कतई टालते न बना।

वैसे ज़रा "मुकुल" भाई के द्वारा रचित ये सुन्दर चतुश्पदियाँ देखिए। हमें तो ये कहीं से अधूरी नहीं लगीं :-
माना कि मयकशी के तरीके बदल गए
साकी कि अदा में कोई बदलाव नहीं है!
गर इश्क है तो इश्क की तरहा ही कीजिये
ये पाँच साल का कोई चुनाव नहीं है ?
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गिद्धों से कहो तालीम लें हमसे ज़रा आके
नौंचा है हमने जिसको वो ज़िंदा अभी भी है
सूली चढाया था मुंसिफ ने कल जिसे -
हर दिल के कोने में वो जीना अभी भी है !
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यूँ आईने के सामने बैठते वो कब तलक
मीजान-ए-खूबसूरती, बतातीं जो फब्तियां !
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मगर अब जब आप सब प्रियजन इतना फ़ोर्स कर ही रहे हैं, तो लीजिए कुछ इस तरह से इनमें हम भी शामिल हुए जाते हैं जी---
माना कि मैकशी के तरीक़े बदल गए
साक़ी कि अदा में कोई, बदलाव नहीं है !
गर इश्क़ है तो इश्क़ के मानिंद कीजिये
ये पाँच साल का कोई, चुनाव नहीं है !!
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गिद्धों ज़रा तालीम लो, फिर से कहीं जाके,
नोंचा था तुमने जिसको परिंदा, अभी भी है !
सूली चढ़ा दिया था जी, मुंसिफ़ ने कल जिसे,
वो दिल के कोने में कहीं ज़िंदा, अभी भी है !!
**************************************
यूँ आईने के सामने, टिकते वो कब तलक ?
मीज़ान-ए-हुस्न कस रहा था उनपे फब्तियाँ !
फबने का ज़माना भी था, उनका कभी कहीं,
पर अब तो सज रही हैं, झुर्रियों की ख़ुश्कियाँ
*****************************************
आग़ाज़ को अंजाम पे, आने तो दीजिए
दिल में ज़रा बवाल, मचाने तो दीजिए
है इश्क़ में अब भी हमारे, वो ही दम-ओ-ख़म
नज़रों से नज़र आप, मिलाने तो दीजिए
****************************************
मुकुलजी, समीरलाल जी, सीमा गुप्ता जी और ताऊ रामपुरिया जी के साथ-साथ सभी ब्ला॓गर बंधुओं को इस प्रिय आग्रह के लिए बहुत बहुत आभार सहित
---बवाल

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

पुरवाई में ??.............(बवाल)

नाम उनका पुकारा गया बज़्म में,
थे जो मसरूफ़ अपनी ही तन्हाई में !
लोग ठिठके, ठहर सोचने ये लगे !
किसने तूफ़ाँ को छेड़ा है पुरवाई में ??

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

लिखा जो ख़त तुझे.......................(बवाल)

ब्ला॓गिस्ताँ के प्रियजनों,

निम्नलिखित प्रेम-पत्र, हमने अपनी गर्लफ़्रैण्ड को १४ फ़रवरी सन १९८८ को लिखा था। आप भी मुलाहिजा फ़रमाइए, हँसियेगा कतई नहीं---
प्रिय ............,
तुम्हें इतना सारा प्यार के जितना ......
राम को सीता से, कृष्ण को राधा से, जहाँगीर को अनारकली से, शाहजहाँ को मुमताज़ से,
रोमियो को जूलियट से, राँझा को हीर से, मजनूँ को लैला से, महिवाल को सोहनी से, इन्द्र को उर्वशी से, नल को दमयंती से......,
बहादुरों को तलवार से, नाविक को पतवार से, नर्तकी को पायल की झंकार से, कला को कलाकार से, अदा को अदाकार से, फ़न को फ़नकार से, दुश्मनी को तकरार से, मोहब्बत को इक़रार और इंतज़ार से, दिल को दिलदार से, योद्धा को धनुष की टंकार से.....,
पंथी को डगर से, बाँध को नहर से, सागर को लहर से, प्रदूषण को शहर से, निराश को ज़हर से, क़यामत को कहर से.....,
चावल को दाल से, मछुआरे को जाल से, पंछियों को डाल से, कंजूस को माल से,
बुढ़ापे को काल से, ठगों को चाल से, तबलची को ताल से, दलाली को दलाल से, मुसीबत को तंगहाल से, गायक को ख़याल से, चुंबन को गाल से.....,
चालक को गाड़ी से, सिक्ख को दाढ़ी से, स्त्रियों को मँहगी साड़ी से, पियक्कड़ों को ताड़ी से...,
पर्वतारोही को पहाड़ों की चोटी से, कुत्ते को बोटी से....,
मनुष्य को आज़ादी से, पोतों को दादी से, युद्ध को बरबादी से, युवाओं को शादी से...,
पराक्रम को हनुमान से, कर्ण को दान से, संगीत को कान से, बादशाहों को आन से, नवाबों को शान से, आदमी को जान से, भगत को भगवान से, शहीदों को बलिदान से, गाँधी को हिन्दुस्तान से....,
अंधविश्वासी को वहम से, गँजेड़ी को चिलम से, घायल को मलहम से, लेखक को क़लम से,
और जी हाँ आपको हम से .........................
..................................
प्यार है।
आप मेरी शाइरी, आपकी क़सम
जोड़ी मेरी आपकी ख़ूब रहेगी जम
आप मेरे साथ हैं, तो कुछ नहीं है ग़म
एक तन, एक दिल, एक जान हों हम
आप मेरी ज़िंदगी का नूर हो सनम
रात १२.०० बजे १४ फ़रवरी १९८८
जबलपुर
पूछिए के फिर क्या हुआ ?
अरे फिर होना क्या था, उस समय दोनों के घर वाले ही (राम सैनिक) बन गए।
बाद को हमने फिर प्रयास किया एक और अतिसुन्दर कन्या को यह पत्र देने का ---

संकोच ही करते रह गए भैया और उनकी शादी कहीं और तय कर दी गई।
ये इत्तेफ़ाक भी है कि उनकी और हमारी शादी एक ही तारीख़ और एक ही वक्त पर हुई।
और उन्हें अब तक पता नहीं
और अंत में जिन्हें ये ख़त दिया उन्हें उस ज़माने में हिन्दी ही नहीं आती थी, मगर
दिल की ज़बान भली भाँति समझती थीं वो....
जी हाँ ठीक समझे आप ..... बवालिन ही हैं ये

और इसलिये तब से अब तक यही साथ देती रहीं और आगे भी संभावना नज़र तो आ रही है, अगर हमने ये ख़त किसी और को नहीं दिया तो .....हा हा

आप सभी को वेलेण्टाइन डे पर बहुत बहुत मुबारकबादियाँ

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

ऐसी क्या बात है ? ...... नीरज

बाद मेरे हैं यहाँ और भी गाने वाले
स्वर की थपकी से पहाड़ों को सुलाने वाले ।
उजाड़ बाग़ बियाबान औ सुनसानों में
छंद की गंध से फूलों को खिलाने वाले ॥
इनके पाँवों के फफोले न कहीं फूट पड़ें
इनकी राहों से ज़रा शूल हटा लूँ तो चलूँ
ऐसी क्या बात है चलता हूँ अभी चलता हूँ
गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ तो चलूँ
---गोपालदास 'नीरज'
(महाकवि के जन्मदिवस पर उन्हें ब्ला॓गजगत की बहुत बहुत शुभकामनाएँ)

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

जोल्ट फ़्रा॓म जबलपुर ...........!! नर्मदे हर !!

और तो कुछ न हुआ, पी के बहक जाने से
बात मयख़ाने की, बाहर गई मयख़ाने से

शाइर ने यह शेर कहते वक्त कभी भी यह न सोचा होगा के ये इतना अधिक प्रासंगिक बन जाएगा के हर जगह फ़िट बैठेगा। हा हा !
पिछले तीन चार दिनों की ज़ोरदार आल्हा-ऊदली बड़ी ही मज़ेदार रही। क्या कहना ! अहा!
कोई जवाब नहीं है भाई, उन बेहतरीन पोस्टों और चर्चाओं का। बिल्कुल बजा और दुरुस्त। आनन्द भी आया बहुत। न जाने क्या क्या कयास लगाए गए ? हा हा। बच्चे तक ताली वाली पीटने लग गए, पर बात तो बड़ी थी और हाँ बड़ों की भी। लोग कहते पाए गए, लड़े चलो लड़ैयों। हा हा ।
पर लगता है ठीक तरह से WWF की कुश्तियाँ वगैरह नहीं देखते। भई देखना चाहिए वो भी। देखते होते तो यूँ रघुनाथ न होते। हा हा। नूरा कुस्ती का नाम नहीं सुने हैं का ?
अरे भाई ई सब नौटंकी हम सब जबलपुरिया कौनऊ कौनऊ की मौज लए की खातर किए रहे अऊ आप लोग समझत रहे कि आप हम लोगन की मौज लै रहे हो। ऎ बबुआ आल्हा-चिट्ठा तक मार दिए। हाहा। कौनऊ बात नाहीं भाई । जि का दुई बोल मा ही लच गई दुनिया सगरी, ऊ लचकदार की बातन माँ लचक हुईबै करी। द्याखा ई का कहत हैं जबलपुरी झटका (जोल्ट) हा हा ।
मगर हाँ ई तारीफ़ तो आपहू की करै का परी के, लिटरेचरवा बहुत जोरदार जड़ै हौ आप लोगन।
पर ऊ का पीछे ई काहे जड़ बैठे की हम रिस्तेदारी मा, राज ठाकरे के ताऊ मंजे बाऊ मंजे बाल ठाकरे होय गए। ई कौन साजिस है भाई ? औ जब बोल ही दिए थे पार्टनर तो देख लेते। ई का के इत्ता आल्हा सुनाए के बाद भी पोस्ट उठाय लिए औ बाद में रण भी छोड़ कर भाग लिए । चला लौट आब । बहुत बहाय लिहिन टंसुआ । देखो इत्ते प्यार से बुला रहे हैं मान जाब भाई, नहीं तौ फिर हमका मराठी मा समझाय का परी--
"आणि हे काय रे भाऊ, लाज येत नाय का तुमाला ? आपण कोण ? अरे आपण सगड़्या एकच आहे रे पण हे काय सांगीतला तुमि ? राज ठाकरे याँच्या ताऊ मंजे माहिती तुमाला ? शम्भर ट्क्के गाली दिली, जबलपुरी माणूस ला। चल सा॓री मण्ड याच्या बद्दल। ऒके। दिली दिली रे, तू पण आप्ल्या माणूस आणि भाऊ आहेत। पण आज पासून गप्प बसायला पाहिजे। अरे आ॓लरेडी बवाल झालेलाय रे बाबा। हा हा हा।" (बुरा न मानो मौजवा है)
और ब्ला॓गिताँ के प्रिय मित्रों ! माँ नर्मदे के पुत्र और आचार्य विनोबा की संस्कारधानी के लोग क्या ऎसे हो सकते हैं, जैसे समझ लिए गए। ये प्रयोजन तो महज़ परसाई जी के व्यंग की धार और "बात तो चुभेगी" के बीच का अन्तर दर्शाने के लिए था और कुछ भी नहीं। इसे किसी किस्म की साज़िश न समझें और ब्ला॓गिंग का भरपूर आनंद लें। हम सब एक हैं और सब के साथ हैं।
और जबलपुर तो सचमुच डबलपुर है ही, क्योंकि यहाँ का हर बंदा एक नहीं दो के बराबर है। शरीर ही से नहीं दिल से भी हा हा। चलिए जाने दीजिए।

१) साँप का ज़हर और उसका उसके ही ज़हर से उतरना, २) तहज़ीब याने संस्कार ३) आग के क़तरे ४) गाँधी के तीन बन्दर (बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो) से आदमी की तुलना और ५) संग याने साथ और संग याने पत्थर (संगमरमर) याने "जबल" के टूट्ने का दर्द और अपने शहर के लिए जज़्बा । ये सब देखिए आगे नग़्मा-ए-बवाल में।
--- अन्जुमने-ब्ला॓गराने-जबलपूर
(संस्कारधानी के समस्त ब्ला॓गर बंधुओं की ओर से सबको नर्मदे हर)

शहर बनाने के लिए

साज़िश न कहो, ये तो कोशिश है, इक ज़हर का ज़हर झड़ाने के लिए
यहाँ कौन है ? ये बीड़ा उठाने के लिए, इस शहर को शहर बनाने के लिए
तहज़ीब तो है, तरतीब नहीं, जो जहाँ से चला, वो है आज वहीं
है कुदाल तो राह बनाने के लिए, तरक़ीब नहीं है चलाने के लिए
---यहाँ कौन है ये बीड़ा ......
क़िस्मत में ही जिनके, तरसने को है, वो ये समझे के मेघ बरसने को है
ये तो क़तरे हैं आग लगाने के लिए, अभी बरसों हैं प्यास बुझाने के लिए
---यहाँ कौन है ये बीड़ा ......
बंद-बंद नज़र, बंद-बंद ज़ुबाँ, बंद गोश (कान) हैं, हर बंदे के यहाँ
वाँ तमाशा ही है, दिखलाने के लिए, याँ बवाल है सुनने-सुनाने के लिए
---यहाँ कौन है ये बीड़ा ......
संग टूट रहे, रंग छूट रहे, अंग अंग की अज़्मत लूट रहे
तंग करता बवाल, शहर छोड़ दे, पर दिल नहीं करता है जाने के लिए
---यहाँ कौन है ? ये बीड़ा उठाने के लिए, इस शहर को शहर बनाने के लिए
--- बवाल

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

क्यूँ है..........?

वही हमारे वही तुम्हारे, तो फिर मचा ये बवाल क्यूँ है ?

मेरे शहर की बुलंदियों की, ये हद से गिरती मिसाल क्यूँ है ?

सोमवार, 26 जनवरी 2009

गणतंत्र दिवस पर शर्मिंदगी......... (लाल-एन-बवाल)

सना करें औ सलामियाँ हों , है सद्र शर्मिंदगी कहीं कुछ ?

फ़तह का सामाँ दिखा रहे हों, के टाटे-पैबंदगी सभी कुछ !!

--- समीर 'लाल 'और 'बवाल

शब्दार्थ :-
सना = स्तुति, वन्दना, प्रशंसा
सलामियाँ = गणतंत्र दिवस पर होने वाली परेड

सद्र = राष्ट्रपति और तमाम सियासतदाँ
फ़तह का सामाँ = हथियार, शस्त्र, विमान, टैंक, तोपें, मिसाइलें, असलहा
टाटे पैबंदगी = मख़्मल में टाट का पैबंद लगाना

भावार्थ :- सदियों से चले आ रहे आतंकवाद और तिस पर हालिया बम्बई (हमें मुम्बई कहना पसंद नहीं) की घटनाओं के बाद कुछ भी न कर पाने के बाद तो, गणतंत्र दिवस पर हमें तो बड़ी शर्म आ रही है परेड करते हुए। कैसे कहें, पराजित हिंद को जयहिंद ? बतलाइए ?

रविवार, 18 जनवरी 2009

फ़ुरसतों में .............. (बवाल)



ज़रा सा इनकी तरफ़ तो देखो, हैं दोनों आलम सँभाल रक्खे

औ’ तुमने पहली ही फ़ुरसतों में, उबल-उबल कर बवाल रक्खे

---बवाल

निहित शब्दार्थ :- दोनों आलम = चल (मूक श्वान) - अचल (शिला), तुमने = मानव ने, उबल उबल = असंतुलित वाणी

बुधवार, 14 जनवरी 2009

लुक़्मान को दिखाना ..... (लाल-एन-बवाल)

क़व्वाले-आज़म तहज़ीबिस्तान
चचा लुक़्मान
हमारे उस्ताद की जयंती
१४ जनवरी १९२५ (मकर संक्राति) पर
न ग़ज़ल है न गीत है प्यारे
आपसी बातचीत है प्यारे
उस्ताद कहाँ और क्यूँ चाहिए ?
ये बतलाने के लिए दो शेर पेश हैं ---
साक़ी-ए-गुलबदन का, अन्दाज़ क़ाफ़िराना
उल्फ़त का भी जताना, दामन का भी बचाना
और तब -
मेरी ग़ज़ल में वाक़ई, इस बार ऐबे-ज़म* है
लगता है अब पड़ेगा, लुक़्मान** को दिखाना

---बवाल

शब्दार्थ :-
* ऐबे ज़म = अश्लीलता का दोष
** लुक़्मान = उस्ताद, इस्लाह देने वाला और एक तरह से हक़ीम लुक़्मान भी जिनके पास हर मर्ज़ की दवा हुआ करती थी ।
पुण्य तिथि - २७ जुलाई २००२

सोमवार, 12 जनवरी 2009

सोचेगा क्या ? ? ? --- बवाल

हौवा का मेरे आगे, क्या ख़ूब था बहाना !

आदम हो तुम क्या जानो ? सोचेगा क्या ज़माना !!

---बवाल

बुधवार, 7 जनवरी 2009

क्या फिर किसी केशव का इंतज़ार है ???---(समीर लाल और बवाल)

आज अगर हम आशा करें कि कोई कृष्ण फिर अवतार लेगा और किसी अर्जुन का मार्गदर्शन कर विजय का मार्ग प्रशस्त करेगा तो शायद अतिशयोक्ति ही कहलायेगी. आज के हमारे रहनुमा तो स्वयं अर्जुन टाईप हैं, कहो न कहो वो कृष्ण जी को ही अपने हिसाब का संदेश दिलवाने के लिए उन्हीं को आरक्षित सूची में टॉप पर बैठाल दें और लीजिए कृष्ण जी सेट.

इन्टरनेट से कृष्ण-अर्जुन

आज गीता के नव-संदेशों की आशा करना मात्र मूर्खता ही साबित होगी. सब अपनी जुगत बैठाल रहे हैं. देश और देशवासियों की रक्षा के पहले कुर्सी की रक्षा सर्वोपरि बनी हुई है. सियासती चालें ऐसी कि सिद्ध प्रमेय को सिद्ध करने के लिए युद्ध रुका हुआ है, जाने क्या सिद्ध करने करने के लिए.

माना कि हमला ही एक मात्र उपाय नहीं है, मगर यह उपाय ही नहीं है, ऐसा भी तो नहीं. और जब कोई अन्य उपाय कारगर नहीं हो पा रहा है तो इसी के अमल से क्यूँ गुरेज़. कहीं बात कुछ और तो नहीं.

गीता का नव संदेश आये या न आये, फिर भी कुछ संदेश देने में क़लम क्यूँ रुके. क़लम की अपनी ताक़त है. गीतों और ग़ज़ल की अपनी ज़ुबान है. समझ अपनी अपनी-कहन अपना अपना.

लीजिए पेश है लाल और बवाल की एक और जुगल बंदी. शायद आपको यह संदेश पसंद आये:

चलो भी यार चलो, तो कमाल हो जाए
ज़माना याद रखे, वो धमाल हो जाए

हसीन शाम का, चेहरा उतर रहा है तो...
...तो पेश महफ़िल में, दिल का हाल हो जाए

न ऐसी बात करो, यार पीछे हटने की !
ख़ज़ाना खोदना हो, और कुदाल खो जाए?

जवाब खोजता, रह जाए ये तमाम आलम
अनासिरों से कुछ, ऐसा सवाल हो जाए

मैं रिंद वो नहीं जो, मय से होश खो जाए
मैं रिंद वो के जो, बिन मय निढाल हो जाए

वो जाने कौन सा ग़म, दिल से लगाये बैठा है
सुना दो ऐसी ग़ज़ल, वो निहाल हो जाए.

ये "लाल" रम्ज़-ओ-इस्लाह है, इसी ख़ातिर
ज़ुबानदाँ ज़माँ, हमख़याल हो जाए

के हामी भर दो चलो, देर ना करो देखो
ना ख़ुशख़िसाल फिर, बरहम "बवाल" हो जाए !!

---समीर लाल और बवाल (जुगलबंद)

शब्दार्थ :-
रिंद = पीनेवाला
मय = शराब
तमाम आलम = ब्रह्माण्ड
रम्ज़ = इशारा, संकेत
इस्लाह = मार्गदर्शन
अनासिर = पंचतत्व, पंचमहाभूत
ज़ुबानदाँ = भाषा का ज्ञाता
ज़माँ = संसार, ज़माना
हमख़याल = मित्र, एक जैसे विचार वाला
ख़ुशख़िसाल = मधुर स्वभाव
बरहम = अप्रसन्न

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

मिसरा-ए-ऊला .... मिसरा-ए-सानी (नव-वर्ष पर :- बवाल)

ब्लॉगिस्ताँ के सभी अहबाबों और अजीजों को नव-वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएँ और बधाइयाँ ---

हमारी नज़र में, ये दुनिया-ए-फ़ानी

है मिसरा-ए-ऊला, है मिसरा-ए-सानी

---बवाल

भावार्थ :-
ये नश्वर संसार ज़रूर है, पर नष्ट होता नहीं। यही बीता वर्ष (मिसरा-ए-ऊला) भी है और नव वर्ष (मिसरा-ए-सानी) भी यही कुछ रहना है। न बदला है, न बदलेगा कुछ भी। इसलिए वर्तमान को ही गत और नवागत मानते हुए प्रसन्नचित्त जीवन जिए जाइए।