इसका मूडे-मंज़र अजीब ही होता है. ये शायर-वायर टाइप के लोग ऐसे ही होते हैं क्या ? अब देखिए ना. एक ज़माने में गुरूजी पंकज सुबीर साहब ने, इस साल होली के आसपास की बात है, तरही मुशायरे के लिए एक बहुत ही ख़ूबसूरत मिसरा दिया था- “आज महफ़िल में कोई शमअ फ़रोज़ाँ होगी”. और इस पर ब्लागरों से ग़ज़ल कहने का आग्रह किया था.
बाद में उसमें कोई टैक्निकल प्राब्लम के चलते उसकी जगह कुछ और मिसरा-तरह दे दिया गया शायद. लेकिन उसके बदलने के पहले ही हमने इस पर कुछ शेर-वेर लिख-विखा कर अपने भाई ‘बवाल’ को रिफ़र कर दिया था, मात्रा वात्रा के पेंचोख़म सुलझाने के लिए. बात आई गई हो गई. हमारी मेल न जाने उनके बाक्स पर कितने दिन धूल खाती पड़ी रही. अचानक अपनी ससुराल मँगलूर से, भाई साहब ने लौटकर हमें इसका जवाब भेज दिया. आय हाय जवाब की हैडिंग पढ़कर पहले तो ऐसा गुस्सा आया कि क्या बतलाएँ. मगर जवाब तो हमारी गुलों से सजी हुई ग़ज़ल थी, अरे क्रोध-काफ़ूर होते देर न लगी.
हमने उससे पहले तो यही कहा कि "कौन टाइप के हो यार ?”
हमारे इस सवाल का जवाब इन्होंने हमेशा दाँत निपोर कर ही दिया है, मगर वो दंत-निपोरी हमारे लिए अपनेपन से हमेशा लबरेज़ रही है. हा हा.
खै़र हमने फिर कहा- कि भैये वो २१२२ ११२२ ११२२ २२ वगैरह देख लिए के नहीं इसमें ?
तो भाई साहब उल्टा हमीं से पूछ बैठे के ग़ज़ल कहना है या परेड करना है ? १-२, १-२. अब बतलाइए.
हमने कहा- अरे यार मतलब वो फ़ाइलुन-फ़ाइलातुन वातुन क्या क्या होता है वो सब देख लिया ना ?
तो जवाब देते हैं - जानी, हम वक़ील हैं और वक़ील सिर्फ़ फ़ाइल से वास्ता रखता है तुन से नहीं, समझे !
क्या कहें तुम्हें ‘रय दुष्ट कहीं के’ !!! हा हा !
खै़र, आप तो ग़ज़ल पढ़िए और उसकी फ़ाइलिंग देखिए ....... इस जुगलबंदी में वैसे हमारी स्थिति तो बस बंदी वाली ही है बाकि जुगल कौन?

आज महफ़िल में कोई, शमअ फ़रोज़ाँ होगी
जान-ए-परवाना यूँ तहज़ीब से क़ुर्बां होगी
हमसफ़र दिल से इजाज़त लिए बग़ैर यहाँ
बात आँखों से ख़ुद-बख़ुद ही अब अयाँ होगी
छ्लकते जाम पर फ़लक से जो होगी नाज़िल
वो झलक शोख़-चश्म नूरे-कहकशाँ होगी
फ़सुर्दाहाल पड़ी ज़ीस्त जो बियाबाँ में
क्या ख़बर वो ही आज जश्ने-चराग़ाँ होगी
दिल की धड़कन खिंची जाती है उसी की जानिब
बर्क़ हम पर ही सनम आज मेहरबाँ होगी
उसके वाबस्ता भी होकर के जो तन्हा ही रहे
सख़्तजाँ बेबसी की तब तो इन्तेहाँ होगी
एक-मज़हब ही रहेगी तमाम महफ़िल गर
एक मिक़्राज़ दिलों के भी दरमियाँ होगी
कौन किसके क़रीब कितना है ये देखोगे
जब निगहबान के हाथों में गिरेबाँ होगी
वज़ीफ़ा बज़्म में पढ़कर न मचा देना ‘बवाल’
‘लाल’ यूँ भी तुम्हें हासिल वो लामकाँ होगी
---समीर ‘लाल’ और ‘बवाल’ (जुगलबंदी)
फ़रोज़ाँ = प्रकाशमान, तहज़ीब = सभ्यता-शिष्टता, अयाँ = उजागर, फ़लक = आसमान,
नाज़िल = उतरना, शोख़-चश्म = चंचल नैनों वाली, नूरे-कहकशाँ = आकाशगंगा की रौशनी
फ़सुर्दाहाल = खिन्न-मलिन-उदास, ज़ीस्त = ज़िंदगी,
जश्ने-चराग़ाँ = दीपोत्सव-दीपावली, बर्क़ = तड़ित-बिजली, वाबस्ता = संबद्ध,
सख़्तजाँ = ज़िद्दी, मिक़्राज़ = कैंची, निगहबान = रक्षक,
वज़ीफ़ा = मंत्रजाप, बज़्म = महफ़िल,
लामकाँ = ईश्वर की राजगद्दी