{सीमाजी की ग़ज़ल की ताज़ीम}
इश्क़ पर ईमान, ले आने को वो पुरजोश था
लोग कहते रह गए 'बवाल,' दल्क़पोश था
दस्तरख़्वाँ पे जिसके, सारा आलम, पेशेनोश था
कूच जन्नत कर गया वो, रोज़ा-ए-ख़ामोश था
---बवाल
लुगत :-
ताज़ीम = आदर
पुरजोश = जोश से भरा हुआ
दल्क़पोश = फ़कीर, सूफ़ी
दस्तरख़्वाँ = खाना खाने के लिए बिछी हुई चादर
पेशेनोश = उपलब्ध
रोज़ा-ए-ख़ामोश = मौन का उपवास (मौनव्रत)
सोमवार, 15 दिसंबर 2008
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17 टिप्पणियां:
वाह !
" इस आदर सम्मान के लिए दिल से शुक्रगुजार हूँ"
Regards
बड़े भाई नमस्कार,
बहोत ही बढ़िया ताज़ीम दी है आपने बहोत खूब और बेहद उम्दा भी ... ढेरो बधाई कुबूल करें...
अर्श
कूच जन्नत कर गया वो, रोज़ा-ए-ख़ामोश था
सुभान अल्लाह....भाई वाह....
नीरज
कूच जन्नत कर गया वो, रोज़ा-ए-ख़ामोश था
बहुत सुंदर, बवाल जी!
भाई मन्त्र्मुग्ध हूं ! लाजवाब !
राम राम !
बढिया उर्दू कर दी :)
सुन्दर अनुभूति है!
बेहद उम्दा.बधाई....
Bahut khub.
आनन्द आ गया-अति सुन्दर. क्या बात है!!!
behtreen bawaal bhai.......
दस्तरख़्वाँ पे जिसके, सारा आलम, पेशेनोश था
कूच जन्नत कर गया वो, रोज़ा-ए-ख़ामोश था
क्या खूब कहा .......बहुत अच्छे !
प्रिय मित्र आपकी राय सर आंखों पर, और समीर जी मेरे लिये बेहद सम्मानीय है। लेकिन मैं एक सिलसिला इसी तरह के लेखन को लेकर चला रहा हूं और सौभाग्य है कि इसकी शुरूआत मैंने समीर जी से की है अगली कड़ी में एक मशहूर ब्लॉगर शमा का जिक्र करने वाला हूं आप पढ़ियेगा जररू।
बहुत बहुत खूबसूरत शेरों के लिए बहुत बहुत बधाई।
वो पुरजोशी
बवाल की दल्कपोशी
ये तो आलम है
जब रोजा ऐ खामोशी .
अपन अच्छी ग़ज़लें कहना तो नहीं जानते मियाँ बवाल............हाँ मगर पढ़ना जानते हैं.......और दाद देना भी.......बशर्तें हमें खुजली हो जाए.....और खुजली होने पर हम सामने वाले को खूझा (खीझा नहीं कह रहा भाई.....!!)ही देते हैं.........आप तो वाकई बवाल हो..........अब पहले की तरह नेट पर नहीं आता.........नहीं तो बार-बार खुझाता.........भाई वाकई बवाल हो आप.........!!सच यार.....(छोटे हो बड़े.......!!)
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